शनिवार, 4 दिसंबर 2010

अब फ्रांस को धन्यवाद कहते हुए वापस लौट जाना चाहता हूँ ......मशहूर पेंटर सैयद हैदर रज़ा

मैं मूलतः मण्डला का हूं , मण्डला ही मेरी जन्म स्थली है , अपनी माटी से लगाव स्वाभाविक है , मुझे गर्व हुआ जब मैने यूं ही सर्फिंग करते हुये बीबीसी पर मेरे पिता जी के स्कूल के दिनों के दो एक वर्ष आगे के साथी अब फ्रांस में रह रहे मशहूर पेंटर सैयद हैदर रज़ा का इंटरव्यू पढ़ा ... और यह पढ़ा कि वे इस उम्र में स्वदेश लौटने की इच्छा रखते हैं .. अपनी माटी से प्रेम का यह उदाहरण मुझे अंतस तक छू गया , सोचा क्यों न आप सबके लिये यह इंटरव्यू उधृत करूं ...

मशहूर भारतीय पेंटर सैयद हैदर रज़ा
पेंटर एम एफ हुसैन जहाँ भारत को छोड़कर क़तर की नागरिकता ले चुके हैं, वहीं रज़ा 88 साल की उम्र में बाक़ी जीवन गुज़ारने के लिए भारत लौटना चाहते हैं,कुछ समय पहले जब लंदन के नीलामीघर क्रिस्टीज़ ने रज़ा की पेंटिंग 'सौराष्ट्र' की नीलामी 16 करोड़ रुपए में की तो वे भारत के सबसे महँगे कलाकार के रूप में चर्चा में आए.
1922 में मध्य प्रदेश में दमोह ज़िले में बावरिया गाँव में जन्मे रज़ा को इंटरव्यू के लिए राज़ी करना कठिन काम था क्योंकि वे इसे 'समय की बर्बादी और डिस्ट्रैक्शन' मानते हैं.
पेरिस के उनके घर पर बीबीसी हिंदी के राजेश प्रियदर्शी ने उनसे लंबी बातचीत की, बिना अँगरेज़ी की मिलावट किए रज़ा ने शुद्ध हिंदी में अपनी कला यात्रा पर बात की.
आपने इस वर्ष के अंत में सब कुछ समेटकर हमेशा के लिए भारत जाने की घोषणा करके सबको चौंका दिया है, क्या वजह है इस निर्णय की-
भारत जाने से ही बहुत आनंद मुझे मिलेगा. इस सुख का मैं वर्णन भी नहीं कर सकता. यह वही भारतीय जान सकता है जिसे अपने देश से प्रेम हो. मेरी पत्नी जेनिन मोनज़िला का देहांत हो चुका है 2002 में, मैं अकेला हूँ, मेरी कोई संतान नहीं है. मैं अब चाहता हूँ कि अपने देश आ सकूँ, जो समय मेरे पास बचा है वो अपने देश में बिता सकूँ, मंदिरों में जा सकूँ, मस्जिदों में जा सकूँ, गिरिजाघर में जा सकूँ, मित्रों से मिलकर हिंदी में बात हो सके, संस्कृत के श्लोक सुन सकूँ.
इस निर्णय तक पहुँचने में आपको इतना समय क्यों लगा, पहले क्यों नहीं जा सके भारत?
मेरी पत्नी जेनिन अपने परिवार में इकलौती बेटी थीं और उनके माता पिता ने मुझसे अनुरोध किया कि अगर मैं पेरिस में रह सकूँ तो अच्छा होगा. मुझे फ्रांस शुरू से बहुत पसंद है, यहाँ काम करने की बहुत सुविधा थी इसलिए यहाँ रह गया क्योंकि मेरे लिए चित्र बनाना सबसे बड़ी बात थी. मैं यहाँ रहा मगर देश से संबंध हमेशा बना रहा, हिंदी बोलता रहा, हिंदी पुस्तकें पढ़ता रहा, देश के मित्र आते रहे, मैं भारत जाता रहा, देश को कभी भूला नहीं, हाँ दूर ज़रूर था लेकिन मेरा विश्वास है कि मैंने अपने देश को कभी छोड़ा ही नहीं, जैसे मैं हमेशा वहीं रहा हूँ, इसीलिए मैंने अपना भारतीय पासपोर्ट साठ साल बाद भी बनाए रखा है. अब फ्रांस को धन्यवाद कहते हुए वापस लौट जाना चाहता हूँ ताकि उसी धरती को चूम सकूँ जहाँ मैं पैदा हुआ हूँ.
भारत की वो कौन-सी यादें हैं जिन्हें साठ साल तक पेरिस में रहने के बाद भी आप नहीं भूल पाए हैं?
हम मंडला में रहते थे, बहुत सुंदर जगह थी. जानवर, पंछी, मंदिर, नदियाँ, पहाड़, जंगल सब कुछ बहुत सुंदर था. मैं बहुत ही मामूली विद्यार्थी था, पढ़ाई में दिल नहीं लगता था, ईश्वर की कृपा से मुझे बहुत अच्छे शिक्षक मिल गए जिन्होंने पहचाना कि मैं चित्रकला में कुछ कर सकूँगा तो उन्होंने कहा कि मुझे आर्ट की शिक्षा दिलानी चाहिए. मैं मंडला वापस जाना चाहता हूँ क्योंकि वहाँ बहुत सुंदर यादें हैं जिन्हें मैं वापस जगाना चाहता हूँ.

आप इतने समय तक पेरिस में रहने के बाद एक अलग तरह के जीवन के आदी हो गए हैं, क्या अब आप भारत में रह पाएँगे?
यहाँ की जो आदतें हैं उनकी बात दूसरी है लेकिन मैं वहाँ की आदतों को अपना लूँगा, वहाँ जिस तरह रहना चाहिए उसी तरह रहूँगा. मैं हिंदी भाषा अच्छी तरह बोल सकता हूँ, अपने गाँव के लोगों से भी उनकी बोली में बात कर सकता हूँ, उनसे कह सकता हूँ--'काए भइया कहाँ जात हौ'.. मज़ा आ जाएगा.
क्या भारत जाने पर आपको फ्रांस याद नहीं आएगा जहाँ आपके जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा गुज़रा है?
फ्रांस ज़रूर याद आएगा लेकिन अपना देश तो अपना देश है, उससे हमारा आत्मा और शरीर का जो संबंध है वो दूसरा होता है. फ्रांस को कभी नहीं भूल सकता, चित्रकला में पहचान तो फ्रांस ने ही दी.
आपने 1950 के दशक में फ्रांस आने का फ़ैसला कैसे किया?
फ्रांसीसी चित्रकला मुझे हमेशा से बहुत अच्छी लगती रही है. मैंने फ्रांसीसी चित्र किताबों में, रिप्रॉडक्शन में देखे. मैंने तय कर लिया कि अगर मैं कभी विदेश गया तो फ्रांस ही जाऊँगा. मुंबई में फ्रेंच कान्सुलेट में मेरे दोस्त थे जो मेरे चित्र पसंद करते थे उन्होंने कहा कि अगर मैं फ्रेंच सीख लूँ तो मुझे वहाँ स्कॉलरशिप मिल सकती है, मैंने दो साल तक फ्रेंच सीखी और पेरिस आ गया. मुझे यहाँ आते ही फ्रांस से लगाव हो गया, मैंने यहाँ बीस-तीस साल तक बहुत ख़ामोशी से, एकांत में, धैर्य से काम किया.
आपकी शुरूआत की पेंटिंगों में पेरिस का जीवन दिखाई देता है लेकिन उसके बाद अचानक आपकी चित्रकला में सारे प्रतीक, सारे चिन्ह, सारे मुहावरे भारतीय हो जाते हैं, ऐसा कब हुआ और कैसे हुआ?
ये 1978 की बात है, मैंने अपने आपसे कहा कि ऐसे नहीं चलेगा. मैंने ख़ुद से पूछा, रज़ा, तुम्हारी चित्रकला में तुम्हारा देश कहाँ है? देश के विचार कहाँ हैं? मैंने तभी से देश के विचार ढूँढना शुरू किए, यंत्रा, मंत्रा, बिंदु, कुंडलिनी वग़ैरह उसी के बाद मेरे चित्रों में आए, ईश्वर की कृपा से ऐसा हो सके, और देखिए कि यह फ्रांस में हुआ.
आपकी पेंटिंग सौराष्ट्र सोलह करोड़ रुपए में बिकी है, आपको कैसा लगता है?
देखिए जब मुझे समाचार मिला तो मुझे खुशी हुई, मुझे अच्छा लगता है कि मेरे चित्रों को इतना मान दिया जा रहा है. मैं तो एक ग़रीब चित्रकार की तरह काम करता रहा हूँ और करता ही रहूँगा. पैसे की मुझे कभी कोई चिंता नहीं रही है.

आपको पहचान मिलने में काफ़ी समय लगा, क्या इसकी वजह ये तो नहीं रही कि आप विवादों से हमेशा दूर रहे?
हाँ, समय तो बहुत लगा, मेरा जीवन काफ़ी कठोर रहा है, पैसे की काफ़ी तकलीफ़ रही है, लेकिन मैं तो इसके बारे में सोचता भी नहीं, मेरा अपना स्वभाव है और मैं अपने स्वभाव के हिसाब से काम करता हूँ. क्या मिला, क्या नहीं, देर से मिला या समय पर मिल गया, इन सबके बदले मैं यही सोचता हूँ कि मैं कुछ काम कर पाया हूँ जो लोगों को पसंद आ रहा है, यही बहुत है.
एक पेंटर के रूप में आपका दिन किस तरह गुज़रता है?
मैं कभी-कभी रात भर नहीं सोता, कभी-कभी दिन भर सोता रहता हूँ, कभी ग्यारह-बारह बजे तक नींद आ जाती है, पिछले दिनों काफ़ी देर देर तक नींद नहीं आती थी, पेंटिंग बनाता रहता हूँ, कोई ख़ास समय नहीं है पेंटिंग बनाने का. पिछले एक महीने से काफ़ी थकान थी, क्या किया जाए, 88 साल की उम्र में शरीर की तकलीफ़ें तो होती ही हैं. ईश्वर की कृपा है कि इतनी उम्र मिली, इच्छा यही है कि आगे भी काम कर सकूँ.
इस समय चर्चा ये हो रही है कि आप भारत के सबसे महँगे पेंटर हैं लेकिन आप क्या चाहते हैं कि लोग आपको किस तरह याद रखें?
पैसे के बारे में बात करना मुझे बहुत बेकार लगता है. अगर पैसे की वजह से लोग समझें कि मैं चित्रकार हूँ तो यह बेकार बात है. मैं मानता हूँ कि चित्रों का अपना एक अर्थ होता है उसको समझना चाहिए और उसे ही देखना चाहिए. जिस तरह एक सुंदर स्त्री एक पुरुष के पीछे नहीं भागती बल्कि उसका प्रेमी ही उसके पास आता है, इसी तरह कलाकार को यह नहीं देखना चाहिए कि मेरी पेंटिंग कौन ख़रीदेगा, कितने पैसे मिलेंगे, बल्कि अपना सारा ध्यान अपनी कला पर केंद्रित करना चाहिए, कला प्रेमी ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाते हैं.

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर आलेख. एक बात बताएं. आपके ब्लॉग का शीर्षक महिष्मति मंडला रखा है. महिष्मति तो महेश्वर का पुराना नाम है?

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  2. आदरणीय पी एन सुब्रमण्यम जी
    धन्यवाद
    आपकी टिप्पणी के प्रत्युत्तर में आज की पोस्ट पढ़ें ...

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